Saturday 20 December 2014

एक पैग़ाम, मासूम के कातिलों के नाम :----



अजीब के मंज़र हैं यहाँ,
शायद खुदा बेखबर है यहाँ
के जो फ़रिश्ते कभी रूह थे किसी की जान के
अब बेजान कब्र दफ्न है यहाँ।


जिसने कभी शिकवा की थी अपनी तोतली ज़ुबाँ  से
के --- "मेली ख्वाइछ तो छोती है इछ जहान छे ;
मेली तो मिल्कियत है अम्मी की गोद  औल बाज़ू-ए-अब्बा सुल्तान छे "
आज वो नज़्म खामोश हैं कब्रिस्तान से
आज वो शिकायतें; हैं वीरान से
कई मासूम ख्वाब दफ्न हैं यहाँ।


खुदा के नाम पर फरिश्तों को मार डाला
मासूमीयत के कातिल ने इंसानियत काट डाला
क्या कुसूर था उन नन्हे फरिश्तों का;
जिनको बेवक़्त बेजान बना डाला।


आती रहेंगी सदाएं ज़मीन-ए-पाक से
मासूम सपनों और रोते वालिदों के टूटे ख्वाब से
तुम शैतान थे; शैतान ही रहोगे;
लिखा है करम तेरा ऐ कातिल ! दोज़ख में सड़ोगे।
ये नन्हे फरिश्तों की बद्दुआ और टूटे सपनों की हाय है;
तुझे मदीने में भी पत्थर की चोट नसीब थी
खुदा के इन्साफ से तुम न बचोगे।


चाहत तो होती है के तुम सब जैसों को ज़िंदा जला दु ;
मासूम लहू का बदला अभी चूका दु
खुदा का काम ज़रा असां करा दु।
फिर इल्म होता है --
इस मिट्टी के बदन में, बेजान दिल नही
हमारा ईमान है, तुम जैसे बुज़दिल बेईमान नही।            ----  अविनाश झा