Monday, 7 January 2013

कौन कहता है दिल्ली "दिलवालों " की नगरी है ? ये सब पूरा झूठ है। अगर ऐसा  होता तो उस दिन तमाशबीन नहीं बनते और उन दोनों "बेचारे " को देख कर दिल्ली रोड पर गुजरने वाले रात के "मुर्दा" राही अनसुना और अनजाना नहीं करते। और अगर ऐसा  होता तो शायद वो बेचारी बच जाती। फिर भी कोई खास फायदा नहीं होता , क्योंकि उसके बाद "चादर ढके बलात्कारी " मोहन भागवत , राज ठाकरे , आशाराम और न जाने कितने ऐसे कमीनों की फ़ौज बार बार उसका अपनी ज़हर जैसे बातों से बलात्कार करती। वो तो जीते जी मर जाती।ये दिल्ली ही नहीं पूरे भारत में अब किसी के पास दिल नहीं रहा, सारे के सारे ; हमलोग सारे मर चुके हैं।
       
               हम क़ानून कड़ा  करने और नया कानून बनाने की हल्ला हुल्लड़ करते हैं। पर खुद से पूछने का वक़्त है; "जब कोई हमारे सामने उस विभत्स अवस्था में होगा तो क्या हम सहायता के लिए आगे आयेंगे?"
 या," फिर ये सोचेंगे की ये हमारा काम नहीं है?"
 "अगर हमारे ही साथ कभी ऐसा  हो जाए तो क्या इस तरह की सोच लिए घूमने वाले क्या कभी हमारी सहायता कर पायेंगे?"
  इन सब का एकमात्र जवाब है "नहीं , नहीं,नहीं ". एक और सच यह भी है के ये सच हम में से बहुत सारे लोगों को हजम नहीं होगा। पर खुद में इमानदारी से झाँक कर देखिये सब समझ में आ जाएगा।

     सिस्टम को बदलने या क़ानून कड़ा  करने से भी कभी कुछ नहीं होने वाला जबतक हमलोग अपनी सोच नहीं बदलें। और शायद वो दिन कभी आएगा  भी; पता नहीं। इसी लिए पहले खुद की सोच को बदलिए फिर कानून बदलने की वक़ालत करना। उस रात के गवाह उस लड़की के दोस्त ने साफ़ और बेरहम दिल्ली को अपनी आँखों से देखा ; और इसी  कारन उसने कहा ;"अगर आप किसी की मदद कर  सकते हैं तो जरूर करिए, क्योंकि क्या पता कल क्या हो। अगर उस रात किसी ने भी हम्दोनो को देखकर अनदेखा न किया होता , किसी ने भी अगर मदद की होती तो शायद "वो " बच  जाती, शायद ....". 

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