उस रश्क़ में जीने दो ,
जो दर्द-ए-दिल बढ़ा के भी आराम देता है।
उन आँखों की ख़ुमारी में खोने दो ,
जो सौ मैक़दों का जाम देता है।
ऐ ख़ुदा ! क्या हुआ जो वो बेख़बर है मेरे इस एहसास से . . . . .;
इतना काफी है; कि मैं उसकी मुहोब्बत में तेरी इबादत भूल जाता हूँ।
~: अविनाश
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